घर में दरिद्रता, कलह और अशांति है? कहीं इन 6 नित्यकर्मों की अनदेखी तो नहीं कर रहे?”

गृहस्थ का नित्यकर्म

सनातन धर्म में गृहस्थाश्रम को चार आश्रमों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि यह समाज व धर्म की धुरी है। गृहस्थ ही समाज को साधन, संतति और सनातन संस्कृति प्रदान करता है। अतः गृहस्थ के लिए अपने कर्तव्यों का पालन अनिवार्य है। शास्त्रों में वर्णित है कि प्रत्येक गृहस्थ को छः नित्यकर्म अवश्य करने चाहिए, जिससे वह देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण से मुक्त हो सके।

ये कर्म हैं –

1. स्नान,

2. संध्या,

3. जप,

4. देवताओं का पूजन,

5. वैश्वदेव,

6. अतिथि सत्कार।

इन नित्यकर्मों का महत्व शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है। आइए, इनका तात्त्विक विश्लेषण करें—

१. स्नान (शुद्धि का मूल स्रोत)

“शौचमाचमनं स्नानं शुद्धिराचारसेवनम्।”

स्नान केवल शरीर की शुद्धि नहीं, बल्कि अंतःकरण की पवित्रता का भी साधन है। प्रातः सूर्योदय से पूर्व स्नान करना ब्राह्ममुहूर्त का उत्तम आचरण है। स्नान के जल को गंगाजल मानकर मंत्र उच्चारित करना चाहिए—

“गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन्सन्निधिं कुरु।।”

यह मंत्र जल को पवित्र करता है और हमारे भीतर सात्विकता का संचार करता है। स्नान के बिना कोई भी धार्मिक कृत्य निष्फल माना गया है।

२. संध्या (सूर्य उपासना का अनिवार्य विधान)

“यावज्जीवं च यो ब्रह्म संध्यां नोपासते द्विजः।

स लोहशालिकं भुक्त्वा श्वानयोनौ प्रजायते।।”

संध्या वंदन त्रिकालिक होता है – प्रातः, मध्यान्ह एवं सायं। इसमें विशेषकर गायत्री मंत्र जप एवं अर्घ्यदान किया जाता है। कहा गया है कि संध्या करने से जीवन में तेजस्विता, संयम और आध्यात्मिक उन्नति होती है।

गायत्री मंत्र:

“ॐ भूर्भुवः स्वः।

तत्सवितुर्वरेण्यं।

भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात्।।”

इसका जप आत्मशुद्धि, बुद्धि की प्रखरता एवं परमात्मा के सान्निध्य की अनुभूति कराता है।

३. जप (मंत्रों द्वारा आत्मिक जागरण)

“जपो योगस्य साधनम्।”

जप से मानसिक शुद्धि और आत्मबल की वृद्धि होती है। गृहस्थ को प्रतिदिन अपने इष्टदेव, कुलदेवता, या सद्गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का जप करना चाहिए। जप में विशेषकर ॐ नमः शिवाय, श्रीराम जय राम जय जय राम, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे आदि मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। जप को आचरण में उतारना ही सच्चा सनातनी धर्म है।

४. देवताओं का पूजन (ईश्वर से साक्षात्कार का माध्यम)

“देवस्य तु पूजा नित्यं कर्तव्या गृहमेधिना।”

गृहस्थ को प्रतिदिन गणपति, शिव, विष्णु, माता लक्ष्मी, कुलदेवता एवं ग्रामदेवता की पूजा करनी चाहिए। पूजन में दीप, धूप, नैवेद्य, पुष्प, एवं मंत्रों का समुचित प्रयोग होना चाहिए। देवपूजन से गृहस्थ जीवन में मंगल, ऐश्वर्य एवं सुख-शांति का वास होता है।

५. वैश्वदेव (सृष्टि पालन हेतु यज्ञ एवं अन्नदान)

“अग्नौ प्रास्यति यः पूर्वं वैश्वदेवस्य कर्मणः।

स यान्ति परमं लोकं न च भूयोऽभिजायते।।”

वैश्वदेव का अर्थ है – भोजन ग्रहण करने से पूर्व अन्न का अर्पण करना। यह यज्ञ भावना को जागृत करता है। इसमें अन्न का एक भाग गाय, कुत्ते, कौवे, चींटी और देवताओं के लिए समर्पित किया जाता है। यह कर्म मनुष्य को अहंकार से दूर रखता है और समर्पण भाव विकसित करता है।

६. अतिथि सत्कार (अतिथि देवो भव)

“अतिथिं न अभ्यागतं कश्चिद्रात्रौ गृहं न वसेत्।”

गृहस्थ का सबसे बड़ा धर्म है – अतिथि सत्कार। शास्त्रों में अतिथि को देवता समान माना गया है। बिना अतिथि सत्कार किए भोजन करना अनुचित कहा गया है। मनुस्मृति में लिखा है – “अतिथिं सत्करो यस्तु स गच्छति परां गतिम्।”

अतिथि को भोजन कराने से पितरों की तृप्ति होती है और गृह में पुण्य की वृद्धि होती है।

ऋणमुक्ति का दिव्य विधान

शास्त्रों के अनुसार, ये छः नित्यकर्म करने से मनुष्य तीन प्रकार के ऋणों से मुक्त होता है—

1. देव ऋण – देवताओं का पूजन करने से।

2. ऋषि ऋण – संध्या, जप और वेदाध्ययन करने से।

3. पितृ ऋण – वैश्वदेव और अतिथि सत्कार से।

जो मनुष्य इन नित्यकर्मों को श्रद्धा एवं नियमपूर्वक करता है, वह जीवन में सुख, समृद्धि एवं मोक्ष प्राप्त करता है।

गृहस्थ जीवन को शास्त्रों ने तपोवन के समान बताया है। इसमें संयम, सेवा और संस्कार का विशेष स्थान है। नित्यकर्म, न केवल हमारे आध्यात्मिक उत्थान का साधन है, बल्कि यह हमारी सनातन परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने में सहायक भी है। अतः प्रत्येक सनातनी गृहस्थ को इन नित्यकर्मों का श्रद्धा और विधिपूर्वक पालन करना चाहिए।

“यः सनातनधर्मं सेव्यते, स एव धन्यः।”