जगन्नाथ पुरी में एकादशी उल्टी क्यों लटकी है?
जगन्नाथ पुरी धाम को श्रीकृष्ण का जीवंत धाम कहा जाता है, जहाँ भगवान स्वयं भक्तों के साथ लीलाएं करते हैं। इस पवित्र स्थान से अनेक अद्भुत घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, जिनमें से एक है “एकादशी का उल्टा लटकना”। क्या आपने कभी सोचा है कि पुरी में एकादशी उल्टी क्यों लटकी रहती है? इस कथा को जानने से हमें भगवान जगन्नाथ के भक्ति मार्ग की विशालता और उनके महाप्रसाद की महिमा का बोध होता है।
प्रसाद की महिमा और एकादशी की हंसी
पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार, एक बार एक भक्त ने भगवान जगन्नाथ जी का प्रसाद पाया और उसे ग्रहण करने के बाद उसकी पत्तल वहीं छोड़ दी। उसी समय, एक कुत्ता आया और उस पत्तल में लगे अन्न को चाटने लगा। यह दृश्य देखकर ब्रह्मा जी स्वर्ग से पृथ्वी पर आए और उन्होंने चारों ओर देखा, लेकिन उन्हें कहीं भी भगवान का प्रसाद उपलब्ध नहीं हुआ। जब उनकी दृष्टि उस कुत्ते पर पड़ी, जो पत्तल से प्रसाद चाट रहा था, तो उन्होंने बिना किसी संकोच के उसी पत्तल में से प्रसाद खाना प्रारंभ कर दिया।
यह देखकर एकादशी देवी हंसने लगीं और कहने लगीं—
“ब्रह्मा जी! आप एक कुत्ते के साथ मिलकर प्रसाद खा रहे हैं?”
एकादशी के इस उपहास को सुनकर भगवान जगन्नाथ जी स्वयं प्रकट हो गए और उन्होंने कहा—
“एकादशी! यह मेरा प्रसाद है। जगन्नाथ धाम के महाप्रसाद की ऐसी महिमा है कि ब्राह्मण और चांडाल, देवता और पशु, सभी समान भाव से इसे ग्रहण कर सकते हैं। इसमें कोई भेदभाव नहीं होता, क्योंकि यह प्रसाद सीधे मेरे द्वारा ग्रहण कराया जाता है।”
भगवान जगन्नाथ का आदेश: उल्टा लटकने का श्राप
भगवान जगन्नाथ ने आगे कहा—
*”एकादशी! तुमने मेरे महाप्रसाद का अपमान किया है। तुमने मेरे प्रसाद की महिमा को नहीं समझा और उपहास किया, इसलिए अब तुम्हें उल्टा लटकना होगा।”
भगवान के आदेश से एकादशी देवी उल्टी लटक गईं, और तभी से जगन्नाथ पुरी में एकादशी उल्टी लटकी हुई मानी जाती है।
महाप्रसाद की अपरंपार महिमा
पुरी के श्रीमंदिर में महाप्रसाद को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। यहाँ यह माना जाता है कि भगवान स्वयं भोजन ग्रहण करते हैं और फिर भक्तों के बीच वितरित होता है। इस प्रसाद की महिमा इतनी अधिक है कि—
इसे ग्रहण करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
यह मोक्ष प्रदान करने वाला है।
इसे किसी भी स्थिति में अपवित्र नहीं माना जाता।
यह सभी जीवों के लिए समान रूप से स्वीकार्य है।
शिक्षा: समता और भक्ति का संदेश
भगवान जगन्नाथ की यह लीला हमें सिखाती है कि—
भगवान के प्रसाद में कोई भेदभाव नहीं होता।
सच्ची भक्ति का अर्थ है अहंकार का त्याग।
भगवान के भक्तों को ऊँच-नीच की भावना से ऊपर उठकर प्रेमपूर्वक सेवा करनी चाहिए।
जगन्नाथ पुरी के इस प्रसंग से यह स्पष्ट होता है कि सत्य सनातन धर्म में केवल प्रेम, भक्ति और समर्पण ही प्रमुख हैं, जाति-पाति, ऊँच-नीच का कोई स्थान नहीं।
“जो भी श्रद्धा से भगवान जगन्नाथ के महाप्रसाद को ग्रहण करता है, वह मोक्ष का अधिकारी बन जाता है!”